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श्रावकाचार : ८७
सर्वविरति कहलाता है। श्रावक इस प्रकार हिंसा का त्याग नही करता। वह केवल त्रस (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय) प्राणियों की हिंसा से विरत होता है। उसकी यह विरति तीन योग व तीन करणपूर्वक नही होती अपितु तीन योग व दो करणपूर्वक ही होती है। वह निरपराध प्राणियो को मन, वचन अथवा काया से न स्वय मारता है और न दूसरो से मरवाता है। परिस्थितिविशेष मे स्थूल हिंसा का समर्थन करने की वह छूट रखता है। यह श्रावक की देशविरति अथवा उपासक का स्थूल प्राणातिपात-विरमण व्रत है। श्रावक ऐसी कोई भी प्रवृत्ति करने के लिए स्वतन्त्र होता है जिसमे स्थूल हिंसा की संभावना न हो। इस प्रकार की प्रवृत्ति वह दूसरो से भी करवा सकता है । ऐसा करने मे उसके व्रतभंग का कोई प्रश्न उपस्थित नहीं होता। वह कोई भी कार्य करता है अथवा करवाता है, इसकी पूरी सावधानी रखता है कि किसी को कष्ट न हो, किसी को चोट न पहुंचे, किसी को हिंसा न हो, किसी के · प्रति अन्याय न हो। विवेकपूर्वक पूर्ण सावधानी रखते हुए कार्य करने पर भी किसी की हिंसा हो जाय तो श्रावक के अहिंसा-व्रत का भग नही होता। कर्तव्य-अकर्तव्य एवं न्यायअन्याय का विवेक न रखना हिंसा को प्रोत्साहन देना है। इससे अहिंसा-व्रत की रक्षा नही हो सकती । अहिंसा की रक्षा के लिए विवेकशीलता-सत्यासत्यविचारणा अनिवार्य है। विचार की सूक्ष्मता, गभीरता एव यथार्थता तथा दृष्टि की विशालता, ममूढता एवं निष्पक्षता अहिंसा की सुरक्षा के सुदृढ साधन हैं