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११८ : जैन आचार
चतुर्थ शिक्षाव्रत है। यह श्रावक का बारहवाँ अर्थात् अंतिम व्रत है। यथासिद्ध अर्थात् अपने निमित्त बनाई हुई अपने अधिकार की वस्तु का अतिथि के लिए समुचित विभाग करना यथासविभाग अथवा अतिथिसविभाग कहलाता है। जैसे श्रावक अपनी आय को अपने तथा अपने कुटुम्ब के लिए व्यय करना अपना कर्तव्य समझता है वैसे ही वह अतिथि आदि के निमित्त अपनी आय का अमुक भाग सहजतया व्यय करना भी अपना कर्तव्य मानता है। यह कार्य वह किसी स्वार्थ के कारण नहीं करता अपितु विशुद्ध परमार्थ की भावना से करता है। इसीलिए उसका यह त्याग उत्कृष्ट कोटि मे आता है । जिसके आने-जाने की कोई तिथि अर्थात् दिन निश्चित न हो उसे अतिथि कहते है। जो घूमताफिरता कभी भी कही पहुंच जाय वह अतिथि है। उसका कोई निश्चित कार्यक्रम नही होता, जाने-आने के निश्चित स्थान नही होते। इतना ही नहीं, उसका भोजन आदि ग्रहण करने का भी कोई निश्चित कार्यक्रम नही होता। उसे जहाँ जिस समय जैसी भी उपयुक्त सामग्री उपलब्ध हो जाती है वहाँ उस समय उसी से सन्तोष प्राप्त हो जाता है। निर्ग्रन्थ श्रमण को इसी प्रकार का अतिथि कहा गया है। आध्यात्मिक साधना के लिए जिसने गृहवास का त्याग कर अनगारधर्म स्वीकार किया है उस भ्रमणशील पदयात्री निर्ग्रन्थ श्रमण भिक्षुक को न्यायोपार्जित निर्दोष वस्तुओ का नि स्वार्थभाव से श्रद्धापूर्वक दान देना उत्कृष्ट कोटि का अतिथिसविभाग व्रत है। सयमी एवं साधक पुरुषो को आवश्यक वस्तुओ का दान देने से पवित्र जीवन का अनुमोदन होता है