________________
श्रावकाचार : १०५
परिमाण व्रत, २ उपभोगपरिभोग-परिमाण नत, ३. अनर्थदण्डविरमणव्रत। इन्हे गुणवत इसलिए कहा गया है कि इनसे अणुव्रत रूप मूलगुणों की रक्षा तथा विकास होता है। अथवा अणुव्रतो की भावनाओ के रूप मे अथवा उन भावनाओ की दृढता के लिए जिन विशेप गुणो की आवश्यकता रहती है उन्हे गुणवत कहा जाता है। इनकी उपस्थिति मे अणुव्रतो की रक्षा विशेष सरलता से हो सकती है।
१. दिशा-परिमाण-अपनी त्यागवृत्ति के अनुसार व्यवसायादि प्रवृत्तियो के निमित्त दिशाओ की मर्यादा निश्चित करना दिशा-परिमाण व्रत है। इस गुणन्नत से परिग्रह-परिमाणरूप पांचवे अणुव्रत की रक्षा होती है। दिशाओ की मर्यादा निश्चित हो जाने पर तृष्णा पर स्वतः नियन्त्रण हो जाता है। तृष्णा पर नियन्त्रण होने पर सग्रह की भावना पर प्रतिवन्ध लगने में कोई देर नहीं लगती। इस प्रकार इच्छा-परिमाण अथवा परिग्रह-परिमाणरूप पंचम अणुव्रत की दृढता के लिए दिशा-परिमाणरूप गुणव्रत आवश्यक है। दूसरे शब्दो में दिशा-परिमाण व्रत, इच्छा-परिमाण व्रत की ही एक भावना अथवा गुणविशेष है जिससे परिग्रह-नियन्त्रण मे सहायता मिलती है।
दिशा-परिमाण व्रत के निम्नोक्त पाँच अतिचार हैं : १. ऊर्ध्वदिशा-परिणाम-अतिक्रमण, २ अधोदिशा-परिमाण-अतिक्रमण, ३ तिर्यदिशा-परिमाण-अतिक्रमण, ४. क्षेत्रवृद्धि, ५. स्मृत्यन्तर्धा । प्रमादवश अथवा अज्ञान के कारण ऊंची दिशा के निश्चित परिमाण का उल्लंघन करने पर लगने वाले दोष का नाम ऊर्ध्व