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१०४ : जैन आचार
होता है। इसीको अणुव्रत की परिभाषा मे स्थूल परिग्रह-विरमण व्रत कहते है। इसके अनुसार श्रावक उपर्युक्त सब प्रकार की वस्तुओ मे से अपने लिए आवश्यक वस्तुओं की मर्यादा निश्चित कर शेष समस्त वस्तुओ के ग्रहण एवं सग्रह का त्याग करता है। यही परिग्रह-त्याग का स्थूल रूप अथवा स्थूल परिग्रह-विरमण है । इसके मूल में इच्छा-परिमाण रहा हुआ है।
अन्य व्रतो की भाँति परिग्रहसम्बन्धी इस पचम अणुव्रत के भी पांच अतिचार वतलाये गये हैं। इन अतिचारो का सम्बन्ध उपर्युक्त नौ प्रकार के पदार्थो से ही है। इन पदार्थों को अतिचारो की दृष्टि से पाच वर्गों में विभक्त किया गया है तथा स्वीकृत सीमा का उल्लंघन करने पर लगने वाले दोपो को अतिचारो के रूप मे इन्ही के नामो से सम्बद्ध किया गया है । ये अतिचार इस प्रकार है . १. क्षेत्रवास्तु-परिमाण-अतिक्रमण, २. हिरण्यसुवर्ण-परिमाण-अतिक्रमण, ३ धनधान्य-परिमाण-अतिक्रमण, ४ द्विपदचतुष्पद-परिमाण-अतिक्रमण, ५ कुप्य-परिमाणअतिक्रमण । मर्यादा से अधिक परिग्रह की प्राप्ति होने पर उसका दानादि सत्कार्यो मे उपयोग कर लेना चाहिए। इससे परिग्रहपरिमाण व्रत की आसानी से रक्षा हो सकती है तथा समाजहित के कार्यों को आवश्यक प्रोत्साहन मिल सकता है।
गुणवत:
अणुव्रतो की रक्षा तथा विकास के लिए जैन आचारशास्त्र मे गुणवतो की व्यवस्था की गई है। गुणवत तीन हैं : १, दिशा