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________________ १८८ : जैन आचार सवा योजन अर्थात् पाच कोस तक की अवग्रह-मर्यादा-गमनागमन की क्षेत्र-सीमा रखना कल्प्य है। हृष्टपुष्ट, आरोग्ययुक्त एवं बलवान् निम्रन्थ-निग्रन्थियो को दूध, दही, मक्खन, घी, तेल आदि रसविकृतियाँ बार-बार नही लेनी चाहिए । __ नित्यभोजी भिक्षु को गोचरकाल मे ( गोचरी के समय ) आहार-पानी के लिए गृहस्थ के घर की ओर एक बार जाना कल्प्य है। आचार्य आदि की सेवा के निमित्त अधिक बार भी जाया जा सकता है। चतुर्थभक्त अर्थात् उपवास करने वाले भिक्षु को उपवास के बाद प्रातःकाल गोचरी के लिए निकल कर हो सके तो उस समय मिलने वाले आहार-पानी से ही उस दिन काम चला लेना चाहिए। वैसा शक्य न होने पर गोचरकाल मे आहार-पानी के लिए गृहपति के घर की ओर एक बार और जाया जा सकता है। इसी प्रकार षष्ठभक्त अर्थात् दो उपवास करने वाले भिक्षु को गोचरी के समय आहार-पानी के लिए गृहस्थ के घर की ओर दो बार और जाना कल्प्य है। अष्टमभक्त अर्थात् तीन उपवास करने वाला भिक्षु गोचरी के समय आहार-पानी के लिए गृहपति के घर की ओर तीन बार और जा सकता है। विकृष्टभक्त अर्थात् अष्टमभक्त से अधिक तप करने वाले भिक्षु के लिए एतद्विषयक कोई निर्धारित सख्या अथवा समय नहीं है। वह अपनी सुविधानुसार किसी भी समय एव कितनी ही बार आहार-पानी के लिए गृहस्थ के घर जा सकता है। उसे इस विषय मे पूर्ण स्वतन्त्रता है।
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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