________________
श्रमण-धर्म. १८७
चारों दोषो की चिन्तना एवं आलोचना करनी चाहिए। तदनन्तर रात्रिकालीन स्वाध्याय आदि मे लग जाना चाहिए। रात्रि के चतुर्थ प्रहर मे इस ढंग से स्वाध्याय करना चाहिए कि अपनी आवाज से गृहस्थ जग न जायं । चतुर्थ प्रहर का चतुर्थ भाग शेष रहने पर पुनः कायोत्सर्ग करना चाहिए एव रात्रिसम्बन्धी अतिचारों की चिन्तना व आलोचना करनी चाहिए ।
पर्युपणाकल्प
कल्पसूत्र (पर्युषणाकल्प ) के सामाचारी नामक अंतिम प्रकरण मे यह उल्लेख है कि श्रमण भगवान् महावीर ने वर्षा ऋतु का वीस रातसहित एक महीना वीतने पर अर्थात् आषाढ मास के अन्त मे चातुर्मास लगने के वाद पचास दिन व्यतीत होने पर वर्षावास किया । इस प्रकरण मे यह भी उल्लेख है कि इस समय से पूर्व भी वर्षावास कल्प्य है किन्तु इस समय का उल्लघन करना कल्प्य नही । इस प्रकार जैन आचारशास्त्र के अनुसार मुनियों का वर्षावास चातुर्मास लगने से लेकर पचास दिन बीतने तक कभी भी प्रारंभ हो सकता है अर्थात् आषाढ शुक्ला चतुर्दशी से लेकर भाद्रपद शुक्ला पचमी तक किसी भी दिन शुरू हो सकता है । सामान्यतया चातुर्मास प्रारंभ होते ही जीव-जन्तुओ की उत्पत्ति को ध्यान मे रखते हुए मुनि को वर्षावास कर लेना चाहिए । परिस्थितिविशेष की दृष्टि से उसे पचास दिन का समय और दिया गया है । इस समय तक उसे वर्षावास अवश्य कर लेना चाहिए । वर्षावास मे स्थित निर्ग्रन्थ-निग्रन्थियो को भी चारों ओर
-