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१८२ : जैन आचार
के लिए एक मास के स्थान पर दो मास की मर्यादा रखी गई है।
एक परिक्षेप (चहारदीवारी) एव एक द्वार वाले ग्रामादि मे निग्रन्थ-निर्गन्थियों को एक ही समय नहीं रहना चाहिए । जिस वसति के आस-पास दुकानें हो, जो गली के किनारे पर हो, जहाँ अनेक रास्ते मिलते हो वहाँ निर्ग्रन्थियों को रहना अकल्प्य है। निर्ग्रन्थ इस प्रकार के स्थानों मे यतनापूर्वक रह सकते हैं। निर्ग्रन्थियों को विना दरवाजे के खुले उपाश्रय मे नही रहना चाहिए । द्वारयुक्त उपाश्रय न मिलने की स्थिति मे अपवादरूप से परदा लगा कर रहा जा सकता है। निग्रन्थो को विना दरवाजे के उपाश्रय मे रहना कल्प्य है।
बृहत्कल्प के द्वितीय उद्देश मे यह बतलाया गया है कि निग्रंन्थियो को आगमनगृह (धर्मशाला आदि), विकृतगृह (अनावृत स्थान), वृक्षमूल (पेड का तना), अभ्रावकाश (खुला आकाश) आदि मे रहना अकल्प्य है। निर्ग्रन्थ इन स्थानो मे यतनापूर्वक रह सकते हैं। तृतीय उद्देश में कहा गया है कि निम्रन्थों को निर्गन्थियों के उपाश्रय में बैठना, सोना, खाना, पीना आदि कुछ भी नही करना चाहिए । इसी प्रकार निर्ग्रन्थियों के लिए भी निर्ग्रन्थों के उपाश्रय मे बैठना आदि निषिद्ध है।
श्रमण-श्रमणियो को किसी के घर के भीतर अथवा दो घरों के बीच मे बैठना, सोना, देर तक खडे रहना आदि अकल्प्य है। किसी रोगी, वृद्ध, तपस्वी आदि के गिर पड़ने पर बैठने आदि मे कोई हर्ज नही।