________________
१७८ : जैन आचार
पदयात्रा:
ग्रामानुग्राम विचरण करते मुनि किसी के साथ अनावश्यक बाते न करे-गप न मारे किन्तु सावधानीपूर्वक चले। पैर से पार करने योग्य पानी होने पर उसे चलकर पार करे । पानी मे चलते समय किसी प्रकार का आनन्द न लेते हुए सहज गति से पानी पार करे । पानी से बाहर निकल कर कीचड़युक्त गीले पैर से जमीन पर न चले किन्तु पैर सूखने पर ही साफ पैर से चलना प्रारम्भ करे। मार्ग मे किसी के द्वारा पकड़े जाने पर अथवा परेशान किये जाने पर व्याकुल न हो। रास्ते मे आने वाले चैत्य, स्तूप आदि को कुतूहलपूर्वक न देखे । चलते समय आचार्य आदि गुरुजनों का अविनय न हो, इसका पूरा ध्यान रखे । मार्ग मे व्याघ्र आदि हिंसक प्राणियो को देखकर व्याकुल न हो, उन्मार्ग ग्रहण न करे और न कही छिपने की ही कोशिश करे अपितु निर्भय होकर परिस्थिति का सामना करते हुए आगे बढता जाय । इसी प्रकार चोर-लुटेरों से भी न घबराये । लुटेरों से लूट लिये जाने पर दया की भीख न मांगते हुए धर्मोपदेशपूर्वक अपनी वस्तु वापिस मांगे। न मिलने पर किसी प्रकार का दुःख न करते हुए अपना मार्ग ग्रहण करे तथा किसी के सामने उसके सम्बन्ध में किसी प्रकार की शिकायत न करे । सव कष्टो को समभावपूर्वक सहन करना ही सच्चा संयम है-सयमी का मार्ग है-मुनिधर्म है। वसति अर्थात् उपाश्रय :
जैन आचार-ग्रथों मे वसति के लिए शय्या शब्द का प्रयोग