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________________ श्रमण-धर्म : १७९ किया गया है । आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की प्रथम चुला के द्वितीय अध्ययन का नाम शय्यैपणा है जिसमे संयत के निवासयोग्य स्थान अर्थात् वसति की गवेषणा का विचार किया गया है । नियुक्तिकार एवं चूर्णिकार ने शय्यैषणा अध्ययन का व्याख्यान करते हुए शय्या शब्द का अर्थ वसति किया है । वैसे शय्या का अर्थ विछौना होता है । जहाँ विछौना विछाया जासके ऐसे उपाश्रय आदि वसतिस्थान भी शय्या के सम्बन्ध के कारण शय्या कहे जाते हैं । वसति स्थान के गवेषण एवं उपयोग के विषय मे सामान्य नियम यही है कि जिस स्थान के लिए त्यागी के निमित्त से किसी प्रकार की हिंसा हुई हो, होती हो अथवा होने वाली हो वह स्थान श्रमण श्रमणी स्वीकार न करें । जिस स्थान मे किसी प्रकार के विशेष जीव-जन्तु दिखाई दें वहाँ संयत ध्यान, स्वाध्याय, सस्तारक ( बिछौना) आदि न करे । जो स्थान साधारण जीव-जन्तुओं वाला हो उसे प्रमार्जन करके काम मे ले । जो मकान एक या अनेक त्यागियो को लक्ष्य करके बनाया गया हो, खरीदा गया हो अथवा ग्रन्य ढंग से प्राप्त किया गया हो उसे सदोष समझकर निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी उपयोग मे न ले । यदि किसी मकान मे सयमी के निमित्त किसी प्रकार का सस्कार किया गया हो तो उसे भी वह स्वीकार न करे । जहाँ तक बन सके, श्रमण श्रमणी ऊंचे मकान मे न रहे । कारणवशात् ऊँचे मकान मे रहना पड़े तो ऊपर से हाथ-मुँह आदि न धोवे ।
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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