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११४ : जैन आचार
समभाव का लाभ अथवा समता की प्राप्ति । समायसम्बन्धी भाव अथवा क्रिया को सामायिक कहते है। इस प्रकार सामयिक आत्मा का वह भाव अथवा शरीर की वह क्रियाविशेष है जिससे मनुष्य को समभाव की प्राप्ति होती है। दूसरे शब्दो मे जो त्रस और स्थावर सभी जीवो के प्रति समभाव रखता है वह सामायिक का आराधक होता है । सामायिक के लिए मानसिक स्वस्थता और शारीरिक शुद्धि दोनो आवश्यक हैं । शरीर स्वस्थ, शुद्ध एव स्थिर हो किन्तु मन अस्वस्थ, अशुद्ध एवं अस्थिर हो तो सामायिक की साधना नही की जा सकती। इसी प्रकार मन स्वस्थ, शुद्ध तथा स्थिर हो किन्तु शारीरिक स्वस्थता, शुद्धता तथा स्थिरता का अभाव हो तो भी सामायिक की निर्विघ्न आराधना नही की जा सकती। सामायिक करने वाले के मन, वचन और कर्म तीनो पवित्र होते हैं। मन, वचन और कर्म मे सावद्यता अर्थात् दोष न रहे, यही सामायिक का प्रयोजन होता है। इसीलिए सामायिक मे सावध योग अर्थात् दोषयुक्त प्रवृत्ति का त्याग एवं निरवद्य योग अर्थात् दोपरहित प्रवृत्ति का आचरण करना पड़ता है। अमुक समय तक सामायिक व्रत ग्रहण करने वाला व्यक्ति क्रमश. अपने सम्पूर्ण जीवन मे समता का विकास करता है। धीरे-धीरे समभाव का अभ्यास करते-करते वह पूरे जीवन को समतामय बनाता है। जब तक समता जीवनव्यापी नही हो जाती तब तक उसका अभ्यास चलता रहता है। सामायिक व्रत का यथार्थ आराधन यही है। यही सामायिक का सार है।