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१६८ : जैन आचार
चर्य अर्थात् शील की रक्षा के लिए, ४. प्राणिदया अर्थात् जीवों की रक्षा के लिए, ५ तप अर्थात् तपस्या के लिए, ६. सलेखना अर्थात् समाधिमरण के लिए । इन कारणों के मूल में भी व्रताराधना ही रही हुई है। भयकर रोग उत्पन्न होने पर अमुक प्रकार के आहार का त्याग आवश्यक हो जाता है क्योकि वैसा न करने पर शरीर स्वस्थ नही हो सकता और शारीरिक स्वास्थ्य के अभाव मे व्रतो की आराधना नही हो सकती। पाकस्मिक सकट आने पर भी प्राहारत्याग आवश्यक हो जाता है क्योकि वैसा न करने पर प्रतिकूल परिस्थिति के कारण कभीकभी मुनिव्रत खतरे में पड़ जाता है। जिस आहार से गीलवत का भंग होने का भय हो वह आहार भी मुनि के लिए त्याज्य है क्योकि ऐसे आहार से बत-विराधना होती है। जीववध का भय होने पर भी मुनि को आहार का त्याग कर देना चाहिए क्योकि प्राणिदया मुनि का मुख्य धर्म है । तप की आराधना के लिए भी मुनि आहार का त्याग करता है क्योकि विवेकपूर्ण तपस्या से सयम की सुरक्षा होती है । मृत्यु का समय उपस्थित होने पर भी मुनि आहारत्यागपूर्वक मारणान्तिकी सलेखना अर्थात् सथारा करता है एव समाधियुक्त अर्थात् समभावपूर्वक मरण का वरण करता है । ऐसी मृत्यु मुनि के लिए अभीष्ट है । इस प्रकार मुनि का आहारत्याग भी आहारग्रहण के ही समान वतरक्षा के लिए ही है-सयमरक्षा के निमित्त ही है। विशुद्ध आहार:
भिक्षु-भिक्षुणी को ऐसी कोई वस्तु स्वीकार करना कल्प्य