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श्रमण-धर्म : १६७
परित्याग कर समाधिमरण को प्राप्त होता है। यही बात मुनि की अन्य सामग्री के विपय मे भी है। मुनि का आहार-विहार संयम के लिए है । मुनि संयमार्थ ही शरीर धारण करता है। जव उसका शरीर इस उद्देश्य की पूर्ति करने में असमर्थता का अनुभव करने लगता है तब वह आहारादि का परित्याग कर समभावपूर्वक शरीर से मुक्ति प्राप्त करता है। चूंकि वह क्षुधा परीषह को सहन नही कर सकता अर्थात् भूख के कष्ट की उपस्थिति मे व्रतो की आराधना नही कर सकता अतएव आहारादि ग्रहण करता है । जहाँ तक उसके लिए बुभुक्षितावस्था मे व्रताराधना शक्य होती है वहाँ तक वह पाहार ग्रहण नही करता। सशक्त शरीर के रहते हुए आहारादि का त्याग कर अथवा अन्य प्रकार से मृत्यु प्राप्त करना जैन आचारशास्त्र में सर्वथा निषिद्ध है । इस प्रकार की मृत्यु कषायमूलक होने के कारण महान् कर्मवन्ध का कारण बनती है। उपयुक्त समय पर समभावपूर्वक प्राप्त की जाने वाली मृत्यु ही जैन आचारशास्त्र मे उपादेय मानी गई है । इस प्रकार की मृत्यु से आराधक अपने लक्ष्य के समीप पहुँचता है अर्थात् कर्मों से छुटकारा पाता है ।
आहार क्यों नहीं?
जिस प्रकार आहार ग्रहण करने के उपर्युक्त छ. कारण बताये गये हैं उसी प्रकार आहार छोडने के भी निम्नोक्त छः कारण गिनाये गये हैं : १. आतक अर्थात् भयकर रोग उत्पन्न होने पर, २. उपसर्ग अर्थात् आकस्मिक संकट आने पर, ३. ब्रह्म