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४४ : जैन आचार दृष्टि में श्रवण के रूप में परिणत होती है। इससे वोध अधिक स्पष्ट होता है । इस दृष्टि मे स्थित व्यक्ति को धर्म अर्थात् सदाचरण पर इतनी अधिक श्रद्धा होती है कि वह उसके लिए प्राणार्पण करने को भी तैयार रहता है। उसको दृष्टि मे शरीर का उतना मूल्य नहीं होता जितना कि धर्म का-चारित्र का । इतना होते हुए भी इस दृष्टि मे सूक्ष्म बोध का तो अभाव ही रहता है। यही कारण है कि चतुर्थ दृष्टि तक पहुंच कर भी प्राणी कभी-कभी पतित हो जाता है-पुनः नीचे गिर पडता है। स्थिराइष्टि व प्रत्याहार :
उपयुक्त चार दृष्टियो तक कम-ज्यादा मात्रा मे अभिनिवेशआसक्ति की विद्यमानता रहती है। व्यक्ति को सत्यासत्य की सुनिश्चित प्रतीति नही होती । सूक्ष्म बोध के अभाव मे वह तत्त्वातत्त्व की समुचित परीक्षा नही कर पाता । या तो अपनी मान्यता को सत्य मानकर चलता है या पूरी परीक्षा किये विना जिस किसी का अनुसरण करता है। प्राणी की इस प्रकार की स्थिति को 'अवेद्यसवेद्य पद' कहा जाता है। अभिनिवेश का अभाव होने पर सूक्ष्म वोध के कारण व्यक्ति को सत्यासत्य की सुनिश्चित प्रतीति होती है-तत्त्वातत्त्व का निश्चित ज्ञान होता है। इस स्थिति का नाम है 'वेद्यसवेद्य पद' । ( क्षायिक ) सम्यक्त्व की प्राप्ति के कारण ही इस पद की प्राप्ति होती है। प्रथम चार दृष्टियो मे सम्यक्त्व की भजना है अर्थात् इनमे सम्यक्त्व होता भी है और नहो भी । स्थिरा नामक पाँचवी दृष्टि मे निश्चित रूप से