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जैन दृष्टि से चारित्र-विकास : ४५ सम्यक्त्व होता है। यह सम्यक्त्व ग्रन्थिभेद के कारण प्राप्त होता है। इसके बाद साधक का पतन नहीं होता। वह निश्चित रूप से आगे बढ़ता जाता है आध्यात्मिक उन्नति करता जाता है। उसके चारित्र में किसी प्रकार का दोष नही आता-किसी प्रकार की शिथिलता नही पाती । स्थिरादृष्टि मे बोध रत्नप्रभा के समान होता है। उसमे पर्याप्त स्थिरता आ जाती है जिसके कारण आत्मा को साध्य का साक्षात् अनुभव होने लगता है। इस दृष्टि मे विपयविकार-त्यागरूप प्रत्याहार नामक पचम योगाग की प्राप्ति होती है जिससे आत्मा इन्द्रियविषयो की ओर आकृष्ट न होती हुई स्वरूप की ओर झुकती है। जिस प्रकार पूर्वोक्त चार दृष्टियो मे क्रमशः अद्वेष ,जिज्ञासा, शुभूषा एवं श्रवण गुण की प्राप्ति होती है उसी प्रकार इस पाँचवी दृष्टि मे सूक्ष्मबोध गुण उत्पन्न होता है । इस दृष्टि मे स्थित व्यक्ति की चर्या सामान्यतया ऐसी हो जाती है कि उसे अतिचाररूप दोप बहुत कम लगते हैं-नही के बराबर लगते है। वह अनेक यौगिक गुण प्राप्त करता है, जैसे अचंचलता अथवा स्थिरता, नीरोगता, अकठोरता, मलादिविषयक अल्पता, स्वरसुन्दरता, जनप्रियता आदि ।
कान्तादृष्टि च धारणा:
कान्ता नामक छठी दृष्टि में पदार्पण करने के पूर्व साधक को यौगिक सिद्धियां प्राप्त हो चुकी होती हैं। कान्तादृष्टि मे उसे धारणा नामक योगाग की प्राप्ति होती है। धारणा का अर्थ है किसी पदार्थ के एक भाग पर चित्त की स्थिरता। यह दृष्टि