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९४ : जैन आचार
सावधानीपूर्वक स्थूल मृषावाद-विरमण व्रत का पालन करते हए भी एतद्विषयक जिन अतिचारो-दोषो की संभावना रहती है वे प्रधानतया पांच प्रकार के हैं : १. सहसा-अभ्याख्यान, २. रहस्य-अभ्याख्यान, ३.स्वदार अथवा स्वपति-मंत्रभेद, ४. मृपाउपदेश, ५. कूट-लेखकरण। बिना सोचे-समझे, विना देखे-सुने किसी के विषय मे कुछ धारणा बना लेना अथवा निर्णय दे देना, किसी पर मिथ्या कलक लगाना, किसी के प्रति लोगों मे गलत धारणा पैदा करना, सज्जन को दुर्जन, गुणी को अवगुणी, ज्ञानी को अज्ञानी कहना अदि सहसा-अभ्याख्यान अतिचार के अन्तर्गत है। किसी की गुह्य बात किसी के सामने प्रकट कर उसके साथ विश्वासघात करना रहस्य-अभ्याख्यान है। श्रावक को किसी की गोपनीय बात अन्य के सामने प्रकट कर किसी को धोखा नहीं देना चाहिए । पति-पत्नी का एक दूसरे की गुप्त बातो को किसी अन्य के सामने प्रकट करना स्वदार अथवा स्वपति-मत्रभेद है। इससे कुटुम्ब मे क्लेश पैदा होता है तथा बाहर बदनामी होती है। किसी को सच झूठ समझा कर कुमार्ग पर लेजाना मृपोपदेश है । झूठे लेख लिखना, झूठे दस्तावेज तैयार करना, झूठे हस्ताक्षर करना अथवा झूठा अगूठा लगाना, झूठे बही-खाते तैयार करना, झूठे सिक्के बनाना अथवा चलाना आदि कूट-लेखकरण अतिचार के अन्तर्गत हैं। श्रावक को इन सबसे अथवा इस प्रकार के अन्य अतिचारो से बचना चाहिए । उसे सदा सावधान रह कर सत्य की आराधना करनी चाहिए। सावधानीपूर्वक व्रत की आराधना करने वाला व्यक्ति सहसा दोष का भागी नही बनता।