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________________ श्रावकाचार : १२५ मा धना की । अन्त मे मारणान्तिक सल्लेखना स्वीकार कर भक्तपान का प्रत्याख्यान कर समाधिमरण प्राप्त किया एव सौधर्म देवलोक के सौधर्मावतसक महाविमान के उत्तर-पूर्व मे स्थित अरुण विमान मे चार पल्योपम की स्थितिवाले देव के रूप मे उत्पन्न हुआ। वहाँ की आयु पूर्ण कर वह महाविदेह मे मुक्त होगा। अानन्द के इस वर्णन मे स्पष्ट उल्लेख है कि उसने द्वादश श्रावक-व्रतो का पालन करते हुए जीवन के अन्तिम भाग मे एकादश उपासक-प्रतिमाओ की आराधना की एवं सल्लेखनापूर्वक मृत्यु प्राप्त की । द्वादश व्रतो व सल्लेखना का परिचय तो पाठको को प्राप्त हो ही चुका है। अब एकादश प्रतिमाओ का परिचय कराना अभीष्ट होगा। यहाँ प्रतिमा का अर्थ है प्रतिज्ञाविशेष, व्रतविशेष, तपविशेष अथवा अभिग्रहविशेष । प्रतिमास्थित श्रावक श्रमणवत् व्रतविशेषो की आराधना करता है। कोशकार प्रतिमा के मूर्ति, प्रतिकृति, प्रतिविम्ब, विम्ब, छाया, प्रतिच्छाया आदि अर्थ देते हैं। चूकि प्रतिमाओं की आराधना करने वाले श्रावक का जीवन श्रमण के सदृश होता है अर्थात् उसका जीवन एक प्रकार से श्रमण-जीवन की ही प्रतिकृति होता है अत. उसके व्रतविशेषों को प्रतिमाएं कहा जाता है। जिस प्रकार श्रावक के लिए श्रमणजीवन की प्रतिकृतिरूप एकादश उपासक-प्रतिमाओ का विधान किया गया है उसी प्रकार श्रमण के लिए भी अपने से उच्च कोटि के साधक के जीवन की प्रतिकृतिरूप द्वादश भिक्षु-प्रतिमामओ का विधान किया गया है। दशाश्रुतस्कन्ध मे इन दोनो प्रकार की
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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