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१२६ : जैन आचार
प्रतिमाओ - साधना-सोपानो का संक्षिप्त एवं सुव्यवस्थित वर्णन है । पष्ठ उद्देश मे उपासक - प्रतिमाओ तथा सप्तम उद्देश मे भिक्षु प्रतिमाओ पर प्रकाश डाला गया है । व्रतधारी श्रावक मे प्रारम्भ की कुछ प्रतिमाएँ पहले से ही विद्यमान होती है | अतः उनके लिये उसे विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता । जिसे श्रावक के व्रतो के पालन का अभ्यास नही होता उसे प्रथम प्रतिमा से ही प्रयत्नशील होना पडता है ।
प्रथम प्रतिमा में सम्यग्दृष्टि अर्थात् आस्तिकदृष्टि प्राप्त होती है । इसमे सर्वधर्मविषयक रुचि अर्थात् सर्वगुणविषयक प्रीति होती है । दृष्टि दोषों की ओर न जाकर गुणो की ओर जाती है । यह प्रतिमा दर्शनशुद्धि अर्थात् दृष्टि की विशुद्धता - श्रद्धा की यथार्थता से सम्बन्ध रखती है । इसमे गुणविषयक रुचि की विद्य मानता होते हुए भी शीलव्रत, गुणव्रत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि की सम्यक् आराधना नही होती । इसका नाम दर्शनप्रतिमा है ।
द्वितीय प्रतिमा का नाम व्रतप्रतिमा है । इसमे शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि तो सम्यक्तया धारण किये जाते हैं किन्तु सामायिकव्रत एव देशावका शिकव्रत का सम्यक् पालन नही होता ।
तृतीय प्रतिमा का नाम सामायिक प्रतिमा है । इसमे सामायिक एव देशावकाशिक व्रतों की सम्यक् आराधना होते हुए भी चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा आदि के दिनो मे पौषधोपवासव्रत का सम्यक् पालन नही होता ।