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१२४ : जैन आचार
अतिचार है । आगामी जन्म मे मनुष्यसम्बन्धी अथवा देवसम्बन्धी कामभोग प्राप्त करने की इच्छा करना कामभोगाशंसाप्रयोग अतिचार है । मारणान्तिकी सल्लेखना की अराधना करनेवाले को इन व इस प्रकार के अन्य अतिचारो से बचना चाहिए। इससे सल्लेखना की निर्दोष पाराधना होती है। दोप लगने की स्थिति में आलोचना व पश्चात्तापपूर्वक चित्तशुद्धि करनी चाहिए । इस प्रकार शुद्ध तथा शान्तभाव से निष्कषाय एव निर्दोष मृत्यु का वरण करना चाहिए।
प्रतिमाएं :
उपासकदशांग मे आनन्द श्रावक का वर्णन करते हुए बताया गया है कि उसने भगवान् महावीर से पाच अणुव्रत व सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार के गृहस्थ-धर्म को स्वीकार किया एवं घर मे रह कर वारह व्रतो का पालन करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत किए। पद्रहवे वर्ष के प्रारभ मे उसे विचार आया कि मैंने जीवन का काफी हिस्सा गृहस्थ-जीवन मे व्यतीत किया है। अब क्यो न गृहस्थी के झझटों से मुक्त होकर श्रमण भगवान् महावीर से गृहीत धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार कर अपना समय व्यतीत करूँ ? ऐसा विचार कर उसने मित्रो आदि के समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का सारा भार सौपा एवं सबसे विदा लेकर पौषधशाला मे जाकर पौषध ग्रहण कर श्रमण भगवान् महावीर से ली हुई धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार कर रहने लगा। उसने उपासक-प्रतिमाएं अगीकार की एवं एक-एक करके ग्यारह प्रतिमाओ की आरा