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श्रावकाचार : १२३
प्रकार के आवेश एवं अविवेक को स्थान ही कहाँ ? जो शरीर अब रुकने की स्थिति मे नही है उसे इससे वढकर और शानदार विदाई क्या दी जा सकती है ? इससे किसी का क्या अहित हो सकता है ? इसमे व्यक्ति व समाज दोनों का हित निहित है। इसकी आत्महत्या से किसी भी रूप मे तुलना नहीं की जा सकती। जैन आचारशास्त्र परहत्या की तरह आत्महत्या को भी भयकर पाप मानता है। कषायमुक्त वीतराग अहत्प्रणीत आचारशास्त्र मे सकषाय मृत्यु अर्थात् क्रोधादि कपायजन्य आत्मघातरूप मरण का विधान अथवा समर्थन कैसे हो सकता है?
द्वादश व्रतो की ही भाति मारणान्तिकी सलखना अथवा सथारा के भी मुख्य पाच अतिचार बताये गये हैं जो इस प्रकार हैं : १ इहलोकाशसाप्रयोग, २. परलोकाशसाप्रयोग, ३. जीविताशसाप्रयोग, ४. मरणाशंसाप्रयोग, ५ कामभोगाशंसाप्रयोग । इहलोक अर्थात् मनुष्यलोक, आशंसा अर्थात् अभिलापा, प्रयोग अर्थात् प्रवृत्ति । इहलोकाशसाप्रयोग अर्थात् मनुष्यलोकविषयक अभिलापारूप प्रवृत्ति । सल्लेखना के समय इस प्रकार की इच्छा करना कि आगामी भव मे इसी लोक मे धन, कीर्ति, प्रतिष्ठा आदि प्राप्त होइहलोकाशंसाप्रयोग अतिचार है। इसी प्रकार परलोक मे देव आदि बनने की इच्छा करना परलोकाशसाप्रयोग अतिचार है। अपनी प्रशसा, पूजा-सत्कार आदि होता देख कर अधिक काल तक जीवित रहने की इच्छा करना जीविताशंसाप्रयोग अतिचार हे । सत्कार आदि न होता देख कर अथवा कष्ट आदि से घवराकर शीघ्र मृत्यु प्राप्त करने की इच्छा करना मरणाशसाप्रयोग