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७६ : जैन आचार
बताया गया है कि जो सम्यक्त्वी जीव पाच उदुम्बरों तथा सात व्यसनो के सेवन का त्याग करता है वह प्रथम प्रतिमाधारी दर्शन-श्रावक कहलाता है। द्वितीय प्रतिमा मे स्थूल प्राणातिपातविरति आदि बारह व्रतों का पालन किया जाता है। इसी प्रकार
आगे की प्रतिमाओ का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। यद्यपि प्रस्तुत ग्रन्थ मे आचार्य वसुनन्दि ने श्रावक के छोटे-बड़े सभी कर्तव्यो का प्रतिपादन किया है तथापि निम्नलिखित बातों की ओर उनका ध्यान विशेष रूप से गया है : धूत, मद्य, मास, वेश्या, आखेट, चोरी और परदार-सेवनरूप सात व्यसन व उनसे प्राप्त होने वाले चतुर्गति-सम्बन्धी दुख; दान, दान के योग्य पात्र, दाता, दातव्य पदार्थ व दानफल, पचमी, रोहिणी, अश्विनी आदि व्रत-विधान, नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप छ प्रकार की पूजा, जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप व फल से पूजन करने का फल; जिनप्रतिमा-स्थापन, जिनप्रतिमा निर्माण, जिनाभिषेक एवं जिनभवन-निर्माण का फल । सागार-धर्मामृत:
पण्डितप्रवर आशाधर की श्रावकाचार एवं श्रमणाचार दोनो पर कृतियाँ हैं। उनका सागार-धर्मामृत श्रावकाचार से सम्बन्धित है जबकि अनगार-धर्मामृत का सम्बन्ध श्रमणाचार से है। सागार-धर्मामृत आठ अध्यायो मे विभाजित है। प्रथम अध्याय मे सागारधर्म का सामान्य स्वरूप प्रतिपादित करते हुए श्रावक के पाक्षिक, नैष्ठिक व साधकरूप तीन प्रकारो का लक्षण