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जैन दृष्टि से चारित्र-विकास : ३७
आत्मा मोह को एक बार सर्वथा दवा तो देती है किन्तु निर्मूल नाश के अभाव मे दबा हुआ मोह राख के नीचे दबी हुई अग्नि की भाँति समय आने पर पुन. अपना प्रभाव दिखाने लगता है। परिणामत. आत्मा का पतन होता है। आत्मा इस अवस्था से एक बार अवश्य नीचे गिरती है-इस भूमिका से गिर कर नीचे की किसी भूमिका पर आ टिकती है। यहाँ तक कि इस गुणस्थान से गिरने वाली आत्मा कभी-कभी सवसे नीची भूमिका अर्थात् मिथ्यात्व-गुणस्थान तक पहुंच जाती है। इस प्रकार की आत्मा पुन अपने प्रयास द्वारा कषायो को उपशान्त अथवा नष्ट करती हुई प्रगति कर सकती है। क्षीण कषाय:
कषायों को नष्ट कर आगे बढ़ने वाला साधक दसवे गुणस्थान के अन्त मे लोभ के अन्तिम अवशेष को विनष्ट कर मोह से सर्वथा मुक्ति प्राप्त कर लेता है। इस अवस्था का नाम क्षीणकषाय अथवा क्षीण-मोह गुणस्थान है। इस गुणस्थान को प्राप्त करने वाले व्यक्ति का कभी पतन नही होता । ग्यारहवे गुणस्थान से विपरीत स्वरूप वाले इस बारहवें गुणस्थान की यही विशेपता है। सदेह मुक्तिः
मोह का क्षय होने पर ज्ञानादिनिरोधक अन्य कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। परिणामत. आत्मा मे विशुद्ध ज्ञानज्योति प्रकट होती है। आत्मा की इसी अवस्था का नाम सयोगि केवली गुणस्थान