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जैन आचार
को प्राप्त करने की कामना से तीव्र संकल्प करना निदान - आर्तध्यान है । रौद्रध्यान अर्थात् क्रूरतापूर्ण चिन्तन | जिसका मन क्रूर होता है वह रुद्र कहलाता है । रुद्र व्यक्ति का ध्यान रौद्रध्यान है । हिंसा, असत्य, चोरी आदि से सम्बन्धित चिन्तन रौद्रध्यान के अन्तर्गत है क्योकि उसमे क्रोध, ईर्ष्या, कपट, लोभ, अहकार आदि क्रूर वृत्तियो की विद्यमानता होती है । आर्तध्यान व रौद्रध्यान का सेवन ही अपध्यानाचरण है । प्रमादाचरण अर्थात् आलस्य का सेवन । शुभ प्रवृत्ति मे आलस्य रखना अर्थात् शुभ प्रवृत्ति करना ही नही अथवा असावधानीपूर्वक शुभ प्रवृत्ति करना प्रमादाचरण है । इसका विधेयात्मक रूप अशुभ कार्यो मे उद्यमशील रहना है । हिंसाप्रदान का अर्थ है किसी को हिंसक साधन जैसे -अस्त्र-शस्त्र, विष आदि देकर हिंसक कृत्यों मे सहायक होना । जिस उपदेश से सुनने वाला पापकर्म मे प्रवृत्त हो वैसा उपदेश देना पापकर्मोपदेश कहलाता है । जैसे हिंसा से विरत व्यक्ति किसी को हिंसक साधन देकर हिसक कृत्यों मे सहायक नही होता उसी प्रकार पापकर्म से निवृत्त व्यक्ति किसी को पापकर्म का उपदेश देकर पापपूर्ण कृत्यो मे सहायक नही वनता । इस प्रकार अपध्यानाचरण, प्रमादाचरण, हिसाप्रदान व पापकर्मोपदेश तथा इसी प्रकार की अन्य निरर्थक पापपूर्ण प्रवृत्तियो से निवृत्त होना अनर्थदण्ड - विरमणव्रती के लिए आवश्यक है । अन्य व्रतो की भाति अनर्थदण्ड - विरमण व्रत के भी पाँच प्रधान अतिचार हैं . १. कन्दर्प, २. कौत्कुच्य, ३. मौखर्य, ४. सयुक्ताधिकरण, ५. उपभोगपरिभोगातिरिक्त । विकारवर्धक