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________________ १४६ : जैन आचार परिणामत. आत्मशक्ति की वृद्धि-विकास होता है तथा अन्ततोगत्वा सिद्धि प्राप्त होती है-मुक्ति मिलती है । अतः साधक को गुरु-वन्दन के प्रति उदासीनता अथवा प्रमत्तता नही रखनी चाहिए। प्रमादवश शुभ योग से च्युत होकर अशुभ योग को प्राप्त करने के बाद पुनः शुभ योग को प्राप्त करना प्रतिक्रमण है। मन, वचन अथवा काया से कृत, कारित अथवा अनुमोदित पापो की निवृत्ति के लिए आलोचना करना, पश्चात्ताप करना, निन्दा करना, अशुद्धि का त्याग कर शुद्धि प्राप्त करना प्रतिक्रमण है। यह एक प्रकार का प्रायश्चित्त है। हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन एवं परिग्रहरूप जिन पापकर्मों का निर्ग्रन्थ श्रमण के लिए प्रतिषेध किया गया है उनका प्रमादवश उपार्जन करने पर प्रतिक्रमण करना चाहिए। सामायिक, स्वाध्याय आदि जिन शुभ प्रवृत्तियो का सर्वविरत सयमी के लिए विधान किया गया है, उनका आचरण न करने पर भी प्रतिक्रमण करना चाहिए। क्योंकि अकर्तव्य कर्म को करना जैसे पाप है वैसे ही कर्तव्य कर्म को न करना भी पाप ही है। इसी प्रकार मानसिक व वाचिक शुद्धि के लिए भी प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। प्रतिक्रमण भी सामायिक आदि की ही तरह केवल क्रिया तक सीमित नहीं रहना चाहिए। उससे वस्तुतः दोष-शुद्धि होनी चाहिए। तभी प्रतिक्रमण करना सार्थक कहा जाएगा। इसी बात को पारिभापिक पदावली मे यो कह सकते हैं कि सक्षम साधक के लिए भाव-प्रतिक्रमण ही उपादेय है, द्रव्य-प्रतिक्रमण
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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