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श्रमण-धर्म : १४५
नही । उपयोगयुक्त प्रतिक्रमण भाव-प्रतिक्रमण है तथा उपयोगशून्य प्रतिक्रमण द्रव्य-प्रतिक्रमण है। यही बात सामायिकादि अन्य क्रियाओं के विषय मे भी सत्य है। एक बार दोषोंकी शुद्धि करने के बाद बार-बार उन दोषों का सेवन करना तथा उनकी शुद्धि के लिए बार-बार प्रतिक्रमण करना वस्तुत. प्रतिक्रमण नहीं कहा जा सकता । प्रतिक्रमण का उद्देश्य सेवित दोषों की शुद्धि करना तथा उन दोषों की पुनरावृत्ति न करना है। बार-बार दोषों का सेवन करना व बार-बार उनका प्रतिक्रमण करना प्रतिक्रमण का परिहास करना है। इससे दोषशुद्धि होने के बजाय दोषवृद्धि ही होती है।
काय के उत्सर्ग अर्थात् शरीर के त्याग को कार्योत्सर्ग कहते हैं । यह कैसे ? यहाँ शरीरत्याग का अर्थ है शरीरसम्बन्धी ममता का त्याग । शारीरिक ममत्व को छोडकर आत्म-स्वरूप मे लीन होने का नाम कायोत्सग है। साधक जब बहिर्मुखवृत्ति का त्याग कर अन्तर्मुखवृत्तिको स्वीकार करता है तब वह अपने शरीर के प्रति भी अनासक्त हो जाता है अर्थात् स्व-शरीरसम्बन्धी ममता का त्याग कर देता है। इस स्थिति मे उस पर जो कुछ भी सकट आता है, वह समभावपूर्वक सहन करता है। ध्यान की साधना अर्थात् चित्त की एकाग्रता के अभ्यास के लिए कायोत्सर्ग अनिवार्य है। कायोत्सर्ग मे हिलना-डुलना, बोलना-चलना, उठनावैठना आदि वन्द होता है। एक स्थान पर बैठकर निश्चल एवं निस्पन्द मुद्रा मे खडे होकर अथवा निनिमेष दृष्टि से आत्मध्यान मे लगना होता है। सर्वविरत श्रमण प्रतिदिन प्रात. व सायं