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________________ १४८ : जैन आचार कायोत्सर्ग द्वारा शरीर व आत्मा के सम्बन्ध में विचार करता है कि यह शरीर अन्य है और में अन्य हूँ। मै चैतन्य हूँ-आत्मा हूँ जब कि यह शरीर जड़ है-भौति है। अपने से भिन्न इस शरीर पर ममत्व रखना अनुचित है। इस प्रकार की उदात्त भावना के अभ्यास के कारण वह कायोत्सर्ग के समय अथवा अन्य प्रसग पर आने वाले सभी प्रकार के उपसर्गों-कष्टो को सम्यक प्रकार से सहन करता है । ऐसा करने पर ही उसका कायोत्सर्ग सफल होता है। कायोत्सर्ग भी द्रव्य व भाव के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। शरीर की चेष्टाओ का निरोध करके एक स्थान पर निश्चल एवं निस्पन्द स्थिति मे खडे रहना अथवा बैठना द्रव्य-कायोत्सर्ग है। ध्यान अर्थात् आत्मचिन्तन भाव-कायोत्सर्ग है । कायोत्सर्ग मे ध्यान का हो विशेष महत्त्व है । शारीरिक स्थिरता ध्यान की निर्विघ्न साधना के लिए आवश्यक है। कायचेष्टा-निरोधरूप द्रव्य-कायोत्सर्ग आत्म-चिन्तनरूप भावकायोत्सर्ग की भूमिका का कार्य करता है। अत. कायोत्सर्ग की सम्यक् सिद्धि के लिए द्रव्य व भाव दोनों रूप आवश्यक है। प्रत्याख्यान का अर्थ है त्याग। वैसे तो सर्वविरत मुनि के हिंसादि दोपो से युक्त सर्व पदार्थों का त्याग होता ही है किन्तु निर्दोष पदार्थों मे से भी अमुक का त्याग कर अमुक का सेवन करना अनासक्त भाव के सिंचन के लिए आवश्यक है। प्रत्याख्यान आवश्यक इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है । इसके द्वारा मुनि अमुक समय तक के लिए अथवा जीवनभर के लिए अमुक प्रकार के अथवा सब प्रकार के पदार्थों के सेवन का त्याग करता है।
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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