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१६४ : जैन आचार
समय वस्त्रो की चोरी के भय से आड़ा टेढा मार्ग न लेते हुए निर्भय व निर्मम होकर विचरण करना चाहिए । साराश यह है कि सर्वविरत श्रमण श्रमणी को वस्त्र पर न किसी प्रकार का ममत्व रखना चाहिए, न वस्त्रनिमित्तक किसी प्रकार की हिंसा करनी करवानी चाहिए और न इस प्रकार की हिंसा का किसी रूप मे समर्थन ही करना चाहिए। वस्त्र की गवेपणा करते समय तथा वस्त्र का उपयोग करते हुए इन सब वातो का पूरा ध्यान रखना चाहिए |
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पात्र की गवेषणा व उपयोग :
आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की प्रथम चूला के छठे अध्ययन मे वतलाया गया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियो को अलाबु, काष्ठ व मिट्टी के पात्र रखना कल्प्य है तथा धातु के पात्र रखना अकल्प्य है। उन्हें बहुमूल्य वस्त्र की तरह वहुमूल्य पात्र भी नही रखने चाहिए । तरुण साधु के लिए केवल एक पात्र रखने का विधान है । पात्र की गवेपणा व उपयोग इस ढंग से विहित है कि उसमे किसी प्रकार की हिंसा न हो । बृहत्कल्पसूत्र के प्रथम उद्देश मे निर्ग्रन्थियो के लिए घटीमात्रक अर्थात् घड़ा रखने एव उसका उपयोग करने का विधान है जब कि निर्ग्रन्थो के लिए वैसा करने का निपेध है । व्यवहार सूत्र के आठवे उद्देश मे वृद्ध साधु के लिए जो उपकरण कल्प्य वताये गये हैं उनमे भाड अर्थात् घड़ा तथा मात्रिका अर्थात् पेशाव का वरतन भी समाविष्ट है । वस्त्र की गवेषणा की तरह पात्र की गवेषणा के लिए भी अर्ध