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________________ श्रमण-धर्म : १६५ योजन से अधिक दूर नहीं जाना चाहिए । अपने निमित्त खरीदा गया पात्र ग्रहण नही करना चाहिए। वर्णयुक्त पात्र को विवर्ण नहीं करना चाहिए और न विवर्ण पात्र को वर्णयुक्त ही करना चाहिए । इसी प्रकार सुरभिगन्ध पात्र को दुरभिगन्ध एवं दुरभिगन्ध पात्र को सुर्राभगन्ध नही बनाना चाहिए। आहार : आवश्यक सूत्र मे मुनि के ग्रहण करने योग्य चौदह प्रकार के पदार्थों का उल्लेख है . १ अशन, २. पान, ३. खादिम, ४. स्वादिम, ५ वस्त्र, ६ पात्र, ७ कम्बल, ८ पादप्रोछन, ६. पीठ, १० फलक, ११. शय्या, १२ सस्तारक, १३. औपध १४ भेषज । रोटी, चावल आदि सामान्य खाद्य पदार्थ अशन कहलाते हैं । जल, दूध आदि पेय पदार्थ पान के नाम से प्रसिद्ध हैं । मिष्ठान्न, मेवा आदि सुस्वादु पदार्थ खादिम कहे जाते हैं। लौंग, सुपारी आदि सुवासित पदार्थों का समावेश स्वादिम मे होता है । वस्त्र का अर्थ है पहनने योग्य कपड़े। पात्र का अर्थ है लकड़ी, मिट्टी एव तुम्बे के बरतन । ऊन आदि का बना हुआ चादर कम्बल कहलाता है। रजोहरण को पादपोंछन कहते हैं। वैठने योग्य चौकी को पीठ कहते है। सोने योग्य पट्ट को फलक कहते हैं । ठहरने का मकान आदि शय्या कहलाता है। बिछाने का घास आदि सस्तारक कहलाता है। एक ही वस्तु से बनी हुई दवाई औषध तथा अनेक वस्तुओ के मिश्रण से बनी हुई दबाई भेषज कहलाती है। इन चौदह प्रकार के पदार्थों में से
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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