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१५२ : जैन आचार
साधना तदाधारित होनी चाहिए, उसके समक्ष सदा महावीर का तप.कर्म आदर्श के रूप मे रहना चाहिए। विशुद्ध तपोमय जीवन ही श्रमणधर्म का आदर्श है। यही श्रामण्य है-श्रमण-जीवन का सार है।
उपधानश्रुत अध्ययन चार उद्देशो मे विभक्त है। प्रथम उद्देश मे महावीर की चर्या अर्थात् विहार का वर्णन है। द्वितीय मे शयया अर्थात् वसति, तृतीय मे परीषह अर्थात् कष्ट तथा चतुर्थ मे आतक-चिकित्सा का वर्णन किया गया है। इस संपूर्ण वर्णन मे तपस्या का सामान्य रूप से समावेश किया गया है। यह वर्णन इतना सहज, समीचीन एव सरल है कि पाठक अथवा श्रोता का सिर उस महान तपोमूर्ति के सामने स्वत भद्धावनत हो जाता है। जब से महावीर गृहत्याग करके अनगार बनते हैं तभी से उनका विहार प्रारभ होता है। आचाराग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की भावना नामक तृतीय चूला मे यह बताया गया है कि महावीर तीस वर्प तक घर मे रहने के बाद अपने माता-पिता की मृत्यु होने पर सब कुछ त्याग कर अनगार बने अर्थात् सर्वविरत श्रमण हुए। जव उन्होने दीक्षा ग्रहण की तब उनके पास केवल एक वस्त्र था । दीक्षा के समय उन्होने सामायिक चारित्र ग्रहण किया अर्थात् सर्व सावध योग का प्रत्याख्यान किया-सब प्रकार की सदोष प्रवृत्तियो का त्याग किया एवं सब प्रकार के उपसर्ग सहन करने की प्रतिज्ञा की। उन्होने इस प्रकार का जीवन जीना प्रारभ किया कि जिसमे कषायजन्य हिंसादि दोपों की तनिक भी संभावना न रहे।