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श्रमण-धर्म : १५१
होता है । इच्छा का निरोध होने के कारण साधक वितृष्ण अर्थात् निस्पृह होता हुआ शान्तचित्त होकर विचरता है ।
सर्वविरत श्रमण के लिए जिनका पालन आवश्यक बताया गया है उन पडावश्यको का आचरण देशविरत श्रावक भी अपनी मर्यादानुसार करता है । इससे उसके व्रतों मे दृढता आती है तथा दोषशुद्धि होती है | श्रावक के लिए प्रतिक्रमण आदि के अलग पाठो की व्यवस्था भी जैन आचारशास्त्र मे की गई है ।
आदर्श श्रमण :
यदि श्रमण जीवन का आदर्श एवं हृदय स्पर्शी चित्र देखना हो तो आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध का नवम अध्ययन पढना चाहिए । इस अध्ययन का नाम उपधानश्रुत है । उपधान शब्द की व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार ने बताया है कि तकिया द्रव्यउपधान है जिससे शयन करने मे सुविधा मिलती है; तथा तपस्या भाव - उपधान है जिससे चारित्रपालन मे सहायता मिलती है । जिस प्रकार जल से मलिन वस्त्र शुद्ध होता है उसी प्रकार तपस्या से आत्मा के कर्ममल का नाश होता है । प्रस्तुत अध्ययन मे श्रमण भगवान् महावीर की साधनाकालीन तपस्या का हृदय स्पर्शी वर्णन
| महावीर एक आदर्श श्रमण थे । उन्होंने अपने श्रमण - जीवन मे जिस प्रकार की कठोर तपस्या का सेवन किया उस प्रकार की कठोर तपस्या प्रत्येक जैन श्रमण के लिए आचरणीय है । वही श्रमण भगवान् महावीर का सच्चा अनुयायी है जो उपधानश्रुतनिर्दिष्ट तपोमय जीवन जोने का सक्रिय प्रयत्न करता है । उसकी