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१५० : जैन आचार
साकेतिक प्रत्याख्यान कहलाता है, यथा मुट्ठी बांधकर, गाठ बाधकर अथवा अन्य प्रकार से यह प्रत्याख्यान करना कि जब तक मेरी यह मुट्ठी या गाठ बंधी हुई है अथवा अमुक वस्तु अमुक प्रकार से पड़ी हुई है तब तक मैं चतुर्विध आहार, त्रिविध आहार आदि का त्याग करता हूँ। कालविशेष की निश्चित मर्यादा अर्थात् समय की निश्चित अवधि के साथ किया जाने वाला त्याग कालिक प्रत्याख्यान अथवा अद्धा-प्रत्याख्यान कहलाता है। जैन परिभाषा मे अद्धा का अर्थ काल होता है।
उत्तराध्ययन सूत्र के सम्यक्त्व-पराक्रम नामक उनतीसवे अध्ययन मे षडावश्यक का संक्षिप्त फल इस प्रकार बतलाया गया है :
सामायिक से सावध योग (पापकर्म) से निवृत्ति होती है। चतुर्विशतिस्तव से दर्शन-विशुद्धि (श्रद्धा-शुद्धि ) होती है। वंदन से नीच गोत्रकम का क्षय होता है, उच्च गोत्रकर्म का बध होता है, सौभाग्य की प्राप्ति होती है, अप्रतिहत आज्ञाफल मिलता है तथा दाक्षिण्यभाव ( कुशलता ) की उपलब्धि होती है। प्रतिक्रमण से व्रतो के दोषरूप छिद्रो का निरोध होता है। परिणामतः आस्रव ( कर्मागमन-द्वार ) बंद होता है तथा शुद्ध चारित्र का पालन होता है। कायोत्सर्ग से प्रायश्चित्त-विशुद्धि होती है-अतिचारों की शुद्धि होती है जिससे आत्मा प्रशस्त धर्मध्यान मे रमण करता हुआ परमसुख का अनुभव करता है। प्रत्याख्यान से आस्रव-द्वार वन्द होते हैं तथा इच्छा का निरोध