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१८४ जैन आचार
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है सामान्य दिनचर्या व पर्युपणाकल्प । उत्तराध्ययन आदि मे मुनि की सामान्य दिनचर्या पर प्रकाश डाला गया है तथा कल्पसूत्र आदि मे पर्युषणाकल्प अर्थात् वर्षावास (चातुर्मास ) से सम्व - न्धित विशिष्ट चर्या का वर्णन किया गया है ।
सामान्य चर्या :
उत्तराध्ययन सूत्र के छब्वीसवे अध्ययन के प्रारम्भ मे श्रमण की सामान्य चर्यारूप सामाचारी के दस प्रकार बतलाये गये है : १. आवश्यकी, २ नैपेधिकी, ३ आपृच्छना, ४. प्रतिपृच्छना, ५. छन्दना, ६ इच्छाकार, ७. मिथ्याकार, ८. तथाकार अथवा तथ्येतिकार, ६. अभ्युत्थान, १०. उपसपदा ।
किसी आवश्यक कार्य के निमित्त उपाश्रय से बाहर जाते समय 'मैं आवश्यक कार्य के लिए बाहर जाता हूँ' यो कहना चाहिए । यह आवश्यकी सामाचारी है। बाहर से वापस आकर 'अब मुझे बाहर नही जाना है' यों कहना चाहिए । यह नैपेधिकी सामाचारी है। किसी भी कार्य को करने के पूर्व गुरु अथवा ज्येष्ठ मुनि से पूछना चाहिए कि क्या मैं यह कार्य कर लू ? इसे आप - च्छना कहते हैं । गुरु अथवा ज्येष्ठ मुनि ने जिस कार्य के लिए पहले मना कर दिया हो उस कार्य के लिए आवश्यकता होने पर पुनः पूछना कि क्या अब मैं यह कार्य कर लू, प्रतिपृच्छना है । लाये हुए आहारादि के लिए अपने साथी श्रमणो को आमंत्रित कर धन्य होना छंदना है । परस्पर एक-दूसरे की इच्छा जानकर अनुकूल व्यवहार करना इच्छाकार कहलाता है । प्रमाद के कारण