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________________ १६ : जैन आचार अपने असली रूप मे रहता है। आत्मा का यही रूप जैनदर्शन का ईश्वर है। परमेश्वर अथवा परमात्मा इससे भिन्न कोई विशेष व्यक्ति नही है। जो आत्मा है वही परमात्मा है । जे अप्पा से परमप्पा । कर्मवाद नियतिवाद अथवा अनिवार्यतावाद नही है । कर्मसिद्धान्त यह नही मानता कि प्राणी को नियत समय मे उपार्जित कर्म का फल भोगना ही पड़ता है अथवा नवीन कर्म का उपार्जन करना ही पड़ता है । यह सत्य है कि प्राणी को स्वोपार्जित कर्म का फल अवश्य भोगना पडता है किन्तु इसमे उसके पश्चात्कालीन पराक्रम, पुरुपार्थ अथवा आत्मवीर्य के अनुसार न्यूनाधिकता तथा शीघ्रता अथवा देरी हो सकती है। इसी प्रकार वह नवीन कर्म का उपार्जन करने मे भी अमुक सीमा तक स्वतन्त्र होता है। आन्तरिक शक्ति तथा आचार की परिस्थिति को दृष्टि में रखते हुए व्यक्ति अमुक सीमा तक नये कर्मो के आगमन को रोक सकता है। इस प्रकार जैन कर्मसिद्धान्त मे सीमित इच्छास्वातन्त्र्य स्वीकार किया गया है। कर्मवन्ध व कर्ममुक्ति: । __ जैन कर्मवाद मे कर्मोपार्जन के दो कारण माने गये हैं : योग और कपाय । शरीर, वाणी और मन के सामान्य व्यापार को जैन परिभाषा मे योग कहते है । दूसरे शब्दो मे जैन परिभाषा मे प्राणी की प्रवृत्तिसामान्य का नाम योग है। कषाय मन का व्यापारविशेष है । यह क्रोधादि मानसिक आवेगरूप है । यह लोक
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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