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जैनाचार की भूमिका · १७ कर्म की योग्यता रखने वाले परमाणुओं से भरा हुआ है। जव प्राणी अपने मन, वचन अथवा तन से किसी प्रकार की प्रवृत्ति करता है तब उसके आस-पास रहे हुए कर्मयोग्य परमाणुओ का आकर्षण होता है अर्थात् आत्मा अपने चारों ओर रहे हुए कर्मपरमाणुओ को कर्मरूप से ग्रहण करती है। इस प्रक्रिया का नाम आस्रव है । कपाय के कारण कर्मपरमाणुओ का आत्मा से मिल जाना अर्थात् आत्मा के साथ बंध जाना वंध कहलाता है। वैसे तो प्रत्येक प्रकार का योग अर्थात् प्रवृत्ति कर्मबंध का कारण है किन्तु जो योग क्रोधादि कपाय से युक्त होता है उससे होने वाला कर्मवंध दृढ होता है । कपायरहित प्रवृत्ति से होने वाला कर्मवध निर्बल व अस्थायी होता है। यह नाममात्र का वध है। इससे ससार नही वढता।
योग अर्थात् प्रवृत्ति की तरतमता के अनुसार कर्मपरमाणुरो की मात्रा मे तारतम्य होता है। वह परमाणुओ की राशि को प्रदेश-वन्ध कहते है । इन परमाणुओ की विभिन्न स्वभावरूप परिणति को अर्थात् विभिन्न कार्यरूप क्षमता को प्रकृति-बन्ध कहते है। कर्मफल की मुक्ति की अवधि अर्थात् कर्म भोगने के काल को स्थितिवन्ध तथा कर्मफल की तीव्रता-मन्दता को अनुभाग-बन्ध कहते है। कर्म बधने के बाद जब तक वे फल देना प्रारम्भ नही करते तव तक के काल को अवाधाकाल कहते हैं । कर्मफल का प्रारम्भ ही कर्म का उदय है । ज्यो-ज्यो कमो का उदय होता जाता है त्योंत्यो कर्म आत्मा से अलग होते जाते हैं। इसी प्रक्रिया का नाम