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३० : जैन आचार
आत्मिक विकास :
यात्मिक गुणो के विकास की ऋमिक अवस्थाओ को गुणस्थान कहते है। जैन-दर्शन यह मानता है कि आत्मा का वास्तविक स्वरूप शुद्ध ज्ञानमय व परिपूर्ण सुखमय है। इसे जैन पदावली मे अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख व अनन्तवीर्य कहा जाता है। इस स्वरूप को विकृत अथवा आवृत करने का कार्य कर्मों का है। कर्मावरण की घटा ज्यों-ज्यों घनी होती जाती है त्यो-त्यों आत्मिक शक्ति का प्रकाश मद होता जाता है। इसके विपरीत जैसे-जैसे कर्मों का आवरण हटता जाता है अथवा शिथिल होता जाता है वैसे-वैसे आत्मा की शक्ति प्रकट होती जाती है। आत्मिक शक्ति के अल्पतम आविर्भाव वाली अवस्था प्रथम गुणस्थान है। इस गुणस्थान में आत्मशक्ति का प्रकाश अत्यन्त मन्द होता है। आगे के गुणस्थानों मे यह प्रकाश क्रमशः बढता जाता है । अन्तिम अर्थात चौदहवे गुणस्थान मे आत्मा अपने असली रूप मे पहुँच जाती है।
मोहशक्ति की प्रबलता:
आत्मगक्ति के चार प्रकार के आवरणों-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-मे मोहनीयरूप आवरण प्रधान है। मोह की तीनता-मंदता पर अन्य आवरणो की तीव्रता-मंदता निर्भर रहती है। यही कारण है कि गुणस्थानो को व्यवस्था मे शास्त्रकारों ने मोहशक्ति की तीव्रता-मदता का विशेष अवलम्बन लिया है।