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जैन आचार
अपने जीवन के अन्तिम समय में आचार्य विविध पदो पर नियुक्तियाँ कर सकता है । एतद्विपयक विशिष्ट विधान करते हुए व्यवहार सूत्र के चतुर्थ उद्देश मे कहा गया है कि यदि आचार्य अधिक बीमार हो और उसके जीने की विशेष आशा न हो तो उसे अपने पास के साधुओं को बुलाकर कहना चाहिए कि मेरी आयु पूर्ण होने पर अमुक साधु को अमुक पद प्रदान करे | आचार्य की मृत्यु के वाद यदि वह साधु प्रयोग्य प्रतीत न हो तो उसे उस पद पर प्रतिष्ठित करना चाहिए। अयोग्य प्रतीत होने पर किसी अन्य योग्य साधु को वह पद प्रदान करना चाहिए । अन्य योग्य साधु के अभाव मे आचार्य के सुझाव के अनुसार किसी भी साधु को अस्थायी रूप से कोई भी पद प्रदान किया जा सकता है । अन्य योग्य साधु के तैयार हो जाने पर अस्थायी पदाधिकारी को अपने पद से अलग हो जाना चाहिए ।
आचार्य का सामान्य कार्य अपने अधीनस्थ साधु-साध्वीवर्ग की सब तरह की देख-रेख रखना है । वह उनका मुख्य अधिकारी होता है । उसका विशेष कार्य साधु-साध्वियो को उच्च कक्षा की शिक्षा प्रदान करना है— उच्च अध्यापन करना है । आचार्य के बाद उपाध्याय का स्थान है और उसके बाद प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणावच्छेदक, रात्निक अथवा रत्नाधिक आदि का ।
उपाध्याय
उपाध्याय का मुख्य कार्यं साधु-साध्वियो को प्राथमिक एवं माध्यमिक कक्षा की शिक्षा प्रदान करना है । व्यवहार सूत्र
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