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१७० : जैन आचार
भिक्षु भिक्षुणी को गृहपति के घर मे प्रवेश न करते हुए एकान्त में खडे रहना चाहिए एवं उस कार्य की समाप्ति होने पर अन्दर जाना चाहिए । गृहस्थ के घर का द्वार बिना अनुमति के व बिना यतना के खोलना निषिद्ध है । अन्य भिक्षार्थी यदि पहले से ही गृहस्थ के घर मे गये हुए हो तो उनके निकलने पर ही अन्दर जाना कल्प्य है ।
भोजन करते हुए यदि कोई सचित्त जलादि से हाथ साफ कर भिक्षा दे तो नही लेना चाहिए। सचित्त शिलापट्ट पर पीसी हुई अथवा कूटी हुई वस्तु त्याज्य है । इसी प्रकार अग्नि पर रखा हुआ पदार्थ भी अग्राह्य है । किसी ऊंचे स्थान पर रखी हुई वस्तु को भी सदोष समझ कर नही लेना चाहिए | किसी भी दातव्य पदार्थ का सम्पर्क यदि पृथ्वी कायिक अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक एव त्रसकायिक जीवो से हो तो वह त्याज्य है। चावल का घोवन आदि जब तक अचित्त न हो जाय, अग्राह्य है । कच्ची वस्तु भी सचित्त होने के कारण अकल्प्य है । तात्पर्य यह है कि कोई भी पदार्थ जब तक अचित्त न हो जाय, नही लेना चाहिए ।
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जिस ग्राम, नगर आदि मे श्रमण श्रमणी के परिचित सम्बन्धी आदि रहते हो वहाँ अपरिचितो के यहाँ से आहारादि लेना चाहिए । आहारादि ग्रहण करते समय उन्हें इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि दाता ने उनके निमित्त किसी भी प्रकार का उपक्रम न पहले किया हो और न बाद मे करने की संभावना हो ।