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१०२ : जैन आचार
मूलक ममत्व तथा तज्जन्य सग्रह अथवा परिग्रह भी परिमित हो जाता है । परिणामत. श्रावक जो कुछ भी उपार्जन अथवा संग्रह करता है वह केवल आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही होता है। उससे वह सतीपपूर्वक अपनी तथा अपने आश्रितो की परिमित इच्छा की पूर्ति करता है | श्रावक की इस प्रकार की परिग्रह-परिमिति का ही दूसरा नाम स्थूल परिग्रह - विरमण है | मनुष्य को उतना ही सग्रह करना अथवा रखना चाहिये जितना कि उसके लिए अनिवार्य अथवा आवश्यक हो । अनावश्यक सग्रह से समाज मे विपमता पैदा होती है । इस विषमता के कारण समाज अनेक प्रकार की बुराइयो को जन्म देता है । समाज मे जो शोपणवृत्ति, पारस्परिक अविश्वास, ईर्ष्या-द्वेप, छल-कपट, दुखदारिद्रय, शोक-सताप, लूट-खसोट आदि देखने को मिलते है उनका प्रधान कारण परिग्रहवृत्ति, संग्रह खोरी अथवा सचयबुद्धि है। शोपक पूँजीवाद की जड भी यही है । दूपित साम्यवाद भी इसी पर आधारित है । परिग्रहवृत्ति की परिमितता से ही सरल एव सच्चे समाजवाद की स्थापना हो सकती है । दभरहित परिग्रह-परिमाण से ही यथार्थ सामाजिक न्याय की प्रतिष्ठा हो सकती है । इससे व्यक्ति के जीवन मे सरलता, सादगी एव सदाचरण की वृद्धि होती है तथा पारस्परिक विद्वेष एव सघर्ष को कमी होती है । परिग्रह की परिमितता अहिंसक एवं सत्यनिष्ठ समाज के विकास के लिये अनिवार्य है । इसके बिना न अहिंसा की रक्षा हो सकती है, न सत्यादि की ।
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जैन शास्त्रकारो ने समस्त परिग्रह का निम्नोक्त नौ प्रकारों