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प्राक्कथन
सन्मति ज्ञानपीठ, यागरा ने सन् १९५६ में लेखक का 'जैन दर्शन' प्रकाशित किया । इस ग्रन्थ का हिन्दी जगत् में उल्लेखनीय स्वागत हुआ । राजस्थान सरकार ने एक महस्र रुपये तथा स्वर्णपदक एव उत्तर- प्रदेश सरकार ने पाँच सौ रुपये प्रदान कर लेवक को पुरस्कृत व सम्मानित किया ।
जैन दर्शनशास्त्र पर प्रकाशित उपर्युक्त कृति के समान ही प्रस्तुत ग्रन्थ जैन आचारशास्त्र पर अपने ढंग की एक विशिष्ट कृति है । इसका निर्माण इस ढंग से किया गया है कि भारतीय धर्म व दर्शन का सामान्य परिचय रखनेवाला जिज्ञासु इमे सरलता से समझ सकेगा । विद्यालयो, महाविद्यालयो व विश्वविद्यालयो के विद्याथियों के लिए भी यह उपयोगी सिद्ध होगा ।
जैन आचार कर्मवाद पर प्रतिष्ठित है । कर्मवाद का आधार आत्मवाद है | आत्मवाद का पोपण करनेवाले तत्त्व है अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्तदृष्टि |
जैन आचारशास्त्र में चारित्र - विकास अर्थात् आत्मिक विकास की विभिन्न अवम्याएँ स्वीकार की गई है। आत्मिक गुणो के विकास की इन अवस्थाओ को गुणस्थान कहा गया है। गुणस्थानो का निरूपण मोहशक्ति की प्रबलता - दुर्बलता के आधार पर किया गया है ।
जैन आचार दो रूपों में उपलब्ध होता है : श्रावकाचार और श्रमणाचार । वर्णाश्रम जैसी कोई व्यवस्था जैन आचारशास्त्र में मान्य नही है | किसी भी वर्ण का एवं किसी भी आश्रम में स्थित व्यक्ति श्रावक के अथवा श्रमण के व्रत ग्रहण कर सकता है | श्रावक देशविरति अर्थात् माशिक