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१३६ : जैन आचार
और त्रसकाय जीवनिकाय हैं । इन छ जीवनिकायो की हिसा का नवकोटि- प्रत्याख्यान सर्वप्राणातिपात विरमण महाव्रत कहलाता है । पृथ्वीकाय अर्थात् भूमि, अप्काय अर्थात् जल, तेजस्काय अर्थात् वह्नि, वायुकाय अर्थात् पवन, वनस्पतिकाय अर्थात् हरित और त्रसकाय अर्थात् द्वीन्द्रियादि प्राणी | महाव्रतधारी श्रमण अथवा श्रमणी का कर्तव्य है कि वह दिन मे अथवा रात्रि मे, अकेले अथवा समूह मे, सोते हुए अथवा जागते हुए भूमि, भित्ति, शिला, पत्थर, धुलियुक्त शरीर अथवा वस्त्र को हस्त, पाद, काष्ठ, अंगुली, शलाका आदि से न झाड़े, न पोंछे, न इधर-उधर हिलाये, न छेदन करे, न भेदन करे । अपने धूलियुक्त शरीर आदि को वस्त्रादि मृदु साधनो से सावधानीपूर्वक भाड़े-पोछे । उदक, ओस, हिम, आर्द्र शरीर अथवा आर्द्र वस्त्र को न हुए, न सुखाए, न निचोड़े, न झटके, न अग्नि के पास रखे। अपने गीले शरीर आदि को यतनापूर्वक सुखाए अथवा सूखने दे। अग्नि, अगार, चिनगारी, ज्वाला अथवा उल्का को न जलाये, न बुझाये, न हिलाये, न जल से शान्त करे, न बिखेरे । पखे, पत्र, शाखा, वस्त्र, हस्त, मुख आदि से हवा न करे । बीज, अकुर, पौधे, वृक्ष आदि पर पैर न रखे, नवैठे, न सोये । हाथ, पैर, सिर, वस्त्र, पात्र, रजोहरण, शय्या, सस्तारक आदि मे कीट, पतंग, कुथू, चीटी आदि दिखाई देने पर उन्हे यतनापूर्वक एकान्त मे छोड़ दे । प्रत्येक जीव जीने की इच्छा करता है । कोई भी मरना नही चाहता । जिस प्रकार हमे अपना जीवन प्रिय है उसी प्रकार दूसरो को भी अपना जीवन प्रिय है । इसलिए निर्ग्रन्थ मुनि प्राणवध का त्याग करते है ! असावधानी