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श्रमण-धर्म उपासक अथवा प्रावक अंशत. हिसादि का त्याग करता है अत. वह देशविरत कहलाता है। श्रमण अथवा भिक्षु पूर्णत. हिंसादि का प्रत्याख्यान करता है अत. वह सर्वविरत कहलाता है। श्रावक के व्रतो को अगुवत अर्थात् आंशिक त्याग और श्रमण के व्रतो को महाव्रत अर्थात् पूर्ण त्याग कहा जाता है। सर्वविरतिरूप महाव्रत पांच हैं : १. सर्वप्राणातिपात-विरमण, २ सर्वमपावाद-विरमण, ३. सर्वअदत्तादान-विरमण, ४. सर्वमैथुन-विरमण, ५. सर्वपरिग्रह-विरमण । प्राणातिपात अर्थात् हिसा आदि का करना, कराना ओर अनुमोदन करना रूप तीन करणो का मन, वचन और काय रूप तीन योगो से निपेध किया गया है। इस प्रकार के त्याग को नवकोटि (३४३%९) प्रत्याख्यान कहा जाता है। प्राणातिपात से नवकोटि से विरति लेना सर्वप्राणातिपात-विरमणरूप प्रथम महाव्रत है। इसी प्रकार मृषावाद अर्थात् झूठ, अदत्तादान अर्थात् चोरी, मैथुन अर्थात् कामभोग और परिग्रह अर्थात् संग्रह के नवकोटि प्रत्याख्यानरूप सर्वमृषावाद-विरमण, सर्वअदत्तादान-विरमण, सर्वमैथुन-विरमण और सर्वपरिग्रह-विरमण के विपय मे समझ लेना चाहिए। ये महाव्रत यावज्जीवन अर्थात् जीवनभर के लिए होते हैं। महात्रत
पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय