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जैन आचार
एक रात एवं जहाँ उसे कोई भी नही जानता हो वहां दो रात रह सकता है । इससे अधिक रहने पर उतने ही दिन का छेद ( दीक्षा - पर्याय मे कटौती ) अथवा तपरूप प्रायश्चित्त लगता है । मासिकी प्रतिमा प्रतिपन्न निर्ग्रन्थ को चार प्रकार की भाषा कल्प्य है : आहारादि की याचना करने की, मार्गादि पूछने की, स्थानादि के लिए अनुमति लेने की तथा प्रश्नो के उत्तर देने की । इस प्रकार के अनगार के उपाश्रय मे यदि कोई आग लगा दे तो भी वह बाहर नही निकलता । यदि कोई उसे पकड़ कर बाहर खीचने का प्रयत्न करे तो वह हठ न करते हुए यतनापूर्वक बाहर निकल आता है । यदि उसके पैर मे कांटा, कंकड या कील आदि लग जाय अथवा आँख में धूलि आदि गिर जाय तो उसकी परवाह न करते हुए समभावपूर्वक विचरण करता रहता है । यदि उसके सामने मदोन्मत्त हाथी, घोडा, बैल, भैस, सूअर, कुत्ता, बाघ
अथवा अन्य क्रूर प्राणी प्रा जाय तो उससे भयभीत होकर वह एक कदम भी पीछे नही हटता । यदि कोई भोला-भाला जीव उसके सामने आजाय और डरने लगे तो वह कुछ पीछे हट जाता है । वह ठंड के भय से शीतल स्थान से उठ कर उष्ण स्थान पर अथवा गरमी के डर से उष्ण स्थान से उठ कर शीतल स्थान पर नही जाता अपितु जिस समय जहाँ होता है उस समय वही रह कर शीतोष्ण परीषह सहन करता है ।
द्विमासिकी प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार भी इसी प्रकार व्युत्सृष्टकाय अर्थात् शरीर के मोह से रहित होता है । वह केवल दो दत्तिया अन्न की तथा दो दत्तियाँ जल की ग्रहण करता है । त्रिमासिकी