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जैन आचार-ग्रन्थ : ५९
देव, ५. चुल्लशतक, ६. कुंडकोलिक, ७. सद्दालपुत्र, ८. महाशतक, ९ नदिनोपिता, १०. सालिहीपिता । आनन्द नामक प्रथम अध्ययन मे श्रावक के बारह व्रतो का विशेष वर्णन किया गया है।
दशवैकालिक:
उत्तराध्ययनादि मूलसूत्रो मे दशवैकालिक का भी समावेश किया जाता है। इसके कर्ता आचार्य शय्यभव हैं। इसमे दस अध्ययन है । अन्त मे दो चूलिकाएं भी है। द्रुमपुष्पित नामक प्रथम अध्ययन में बताया गया है कि जैसे भ्रमर पुष्पों को विना कष्ट पहुँचाये उनमे से रस का पान कर अपने आपको तृप्त करता है वैसे ही भिक्षु आहार आदि की गवेषणा मे किसी को तनिक भी कष्ट नहीं पहुंचाता । श्रामण्यपूविक नामक द्वितीय अध्ययन में बताया गया है कि जो काम-भोगो का निवारण नही कर सकता वह सकल्प-विकल्प के अधीन होकर पद-पद पर स्खलित होता हुआ श्रामण्य को प्राप्त नही कर सकता। जैसे अगंधन सर्प अग्नि मे जल कर प्राण त्यागना स्वीकार कर लेता है किन्तु वमन किये हुए विप का पुन. पान नही करता वैसे ही सच्चा श्रमण त्यागे हुए काम-भोगो का किसी भी परिस्थिति मे पुन. ग्रहण नहीं करता। क्षुल्लिकाचारकथा नामक तीसरे अध्ययन में निर्ग्रन्थो के लिए औद्द शिक भोजन, क्रीत भोजन, रात्रिभोजन, राजपिण्ड आदि का निषेध किया गया है तथा बताया गया है कि जो ग्रीष्मऋतु मे आतापना लेते हैं, शीतकाल में ठड सहन करते हैं तथा वर्षाऋतु मे एक स्थान पर रहते हैं वे यत्नशील भिक्षु कहे जाते हैं। चौथा