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१४४. जैन आचार
स्वरूप मे उपयुक्त होता है, यतनापूर्वक आचरण करता है तव वह सामायिकयुक्त होता है ।
समभावरूप सामायिक के महान् साधक एव उपदेशक तीर्थंकरो की स्तुति करना चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक है । तीर्थकर का अर्थ है तीर्थ की स्थापना करने वाला | जिसके द्वारा संसार-सागर तरा जाता है-पार किया जाता है उसे तीर्थ कहते हैं । इस प्रकार का तीर्थ धर्म कहलाता है । जो तीर्थ अर्थात् धर्मका प्रवर्तन करता है वह तीर्थंकर कहलाता है । जैन परम्परा मे इस प्रकार के चौवीस तीर्थंकर माने गये हैं । इन्होने भिन्न-भिन्न समय मे निर्ग्रन्थ धर्म का प्रवर्तन किया है । भगवान् महावीर निर्ग्रन्थ धर्म के अन्तिम प्रवर्तक हुए हैं । इन्हे चौवीसवाँ तीर्थंकर कहा जाता है । चौबीस तीर्थंकरो का उत्कीतन करना चतुर्विंशतिस्तव है । त्याग, वैराग्य, सयम व साधना के महान् आदर्श एवं सामायिक धर्म के परम पुरस्कर्ता वीतराग तीर्थकरो के उत्कीर्तन से आध्यात्मिक बल प्राप्त होता है । उनकी स्तुति से साधना का मार्ग प्रशस्त होता है । उनके गुण-कीर्तन से संयम में स्थिरता आती है । उनकी भक्ति से प्रशस्त भावो की वृद्धि होती है । तीर्थंकरो की स्तुति करने से प्रसुप्त आन्तरिक चेतना जाग्रत होती है । केवल स्तुति से ही मुक्ति प्राप्त हो जाती है, ऐसा नही मानना चाहिए । स्तुति तो सोयी हुई आत्मचेतना को जगाने का केवल एक साधन है । तीर्थंकरो की स्तुति मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति नही हो जाती । मुक्ति के लिए भक्ति एवं स्तुति के साथ-साथ संयम एवं साधना भी आवश्यक है ।