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जैन आचार-ग्रन्थ : ६३ गया है : १. हस्तोत्तर नक्षत्र मे महावीर का देवलोक से च्युत होकर गर्भ मे आना, २ हस्तोत्तर में गर्भ-परिवर्तन होना, ३ हस्तोत्तर मे जन्म-ग्रहण करना, ४. हस्तोत्तर मे प्रव्रज्या लेना, ५ हस्तोत्तर मे ही केवलज्ञान की प्राप्ति होना । कल्पसूत्र के रूप मे प्रचलित ग्रंथ इसी अध्ययन का पल्लवित रूप है। इसमे श्रमणभगवान् महावीर के जीवनचरित्र के अतिरिक्त मुख्य रूप से पार्श्व, अरिष्टनेमि और ऋषभ-इन तीन तीर्थंकरो की जीवनी भी दी गई है। अन्त मे । स्थविरावली एवं सामाचारी (श्रमण-जीवनसम्बन्धी नियमावली) भी जोड़ दी गई है। नवम अध्ययन मे तीस मोहनीय-स्थानो का । वर्णन है। दशम अध्ययन का नाम आयतिस्थान है। इसमे विभिन्न निदान-कर्मों अर्थात् मोहजन्य इच्छापूर्तिमूलक संकल्पों का वर्णन किया गया है जो जन्म-मरण की प्राप्ति के कारण हैं। इस प्रकार दशाश्रुतस्कन्ध के दस अध्ययनो मे से एक अध्ययन श्रावकाचार से सम्बन्धित है जिसमे उपासक-प्रतिमाओ का वर्णन है। शेष नौ अध्ययन श्रमणाचारसम्बन्धी हैं। वृहत्कल्प :
वृहत्कल्प सूत्र मे छ. उद्देश हैं। प्रथम उद्देश मे तालप्रलम्ब, मासकल्प, आपगगृह, घटीमात्रक, चिलिमिलिका, दकतीर, चित्रकर्म, सागारिकनिश्रा, अधिकरण, चार, वैराज्य, अवग्रह, रात्रिभक्त, अध्वगमन, उच्चारभूमि, स्वाध्यायभूमि, आर्यक्षेत्र आदि विषयक विधि-निषेध उपलब्ध हैं। कही-कही अपवाद एव प्रायश्चित्त की भी चर्चा है । द्वितीय उद्देश मे प्रथम बारह सूत्र उपाश्रयविषयक हैं। आगे के तेरह सूत्रो मे आहार, वस्त्र व रजोहरण का