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५२ : जैन
है । यह दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है । प्रथम श्रुतस्कन्ध गणधरकृत तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध स्थविरकृत है । प्रथम श्रुतस्कन्ध मे पहले नौ अध्ययन थे किन्तु महापरिज्ञा नामक एक अध्ययन का लोप हो जाने के कारण अब इसमे आठ अध्ययन ही रह गये है । इन अध्ययनो के नाम इस प्रकार हैं : १ शस्त्रपरिज्ञा, २. लोकविजय, ३. शीतोष्णीय, ४. सम्यक्त्व, ५. लोकसार अथवा आवंती, ६. घूत, ७ विमोक्ष और ८. उपधानश्रुत । ये अध्ययन विभिन्न उद्देशो मे विभक्त है । प्रथम अध्ययन के सात उद्देश है | द्वितीय आदि अध्ययनों के क्रमश छ, चार, चार, छ, पाँच, आठ और चार उद्देश हैं। इस प्रकार प्रथम श्रुतस्कन्ध मे सब मिला कर चौवालीस उद्देश हैं । ये उद्देश छोटे-छोटे सूत्रों मे विभक्त हैं । प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययनो का संयुक्त नाम 'ब्रह्मचर्यं ' है । इसीलिए आचार्य शीलांक ने अपनी टीका मे इस श्रुतस्कन्ध को ब्रह्मचर्य - श्रुतस्कन्ध कहा है । यहाँ ब्रह्मचर्य का अर्थ सयम है जो अहिंसा एवं समभाव की साधना का नामान्तर है । द्वितीय श्रुतस्कन्ध को नियुक्तिकार ने 'आचाराग्र' नाम दिया है । यह वस्तुतः प्रथम श्रुतस्कन्ध का परिशिष्ट है । इसीलिए इसे आचारचूडा अथवा आचारचूलिका भी कहा जाता है । विषय के विशेष स्पष्टीकरण की दृष्टि से इस प्रकार की चूलिकाएँ ग्रन्थो मे जोड़ी जाती हैं । आचाराग्र अथवा आचारचूलिकारूप द्वितीय श्रुतस्कन्ध पाँच चूलाओ मे विभक्त है । प्रथम चूला मे पिण्डेषणादि सात तथा द्वितीय चूला मे स्थान आदि सात अध्ययन हैं। तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम चलाएँ एक-एक अध्ययन के रूप मे ही हैं। प्रथम चूला के प्रथम अध्ययन के ग्यारह, द्वितीय तथा
आचार