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जैन आचार-ग्रन्थ
जैन आचार का प्रारभ देशविरति अर्थात् आंशिक वैराग्य से होता है। इस अवस्था को पंचम गुणस्थान कहते हैं। इसमे व्यक्ति अणुव्रतो-छोटे व्रतो का पालन करता है। इस भूमिका पर स्थित व्यक्ति को उपासक अथवा श्रावक कहा जाता है। इसके बाद की अवस्था सर्वविरति के रूप मे होती है। इसमे व्यक्ति पूर्णतया विरक्त हो जाता है। इस अवस्था को षष्ठ गुणस्थान कहते है । इसमे स्थित श्रमण अथवा निग्रंन्थ महानतो-बडे व्रतो का पालन करता है। इस भूमिका को आचार्य हरिभद्रप्रतिपादित मित्रा-योगदृष्टि एवं पतंजलिनिर्दिष्ट यम-योगाग के समकक्ष माना जा सकता है। इसके बाद चारित्र का धीरे-धीरे विकास होता जाता है जिसके कारण कर्मग्रन्थोक्त अप्रमत्त आदि अवस्थाओ की प्राप्ति होती है। जैन आचार्यों ने श्रमणाचार एव श्रावकाचार दोनो से सम्बन्धित ग्रन्थों का निर्माण किया है। इन ग्रन्थो मे श्वेताम्वर परम्पराभिमत आचा राग, उपासकदशांग, दशवैकालिक, आवश्यक, दशाश्रुतस्कन्ध, वृहकल्प, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ व जीतकल्प तथा दिगम्बर परम्पराभिमत मूलाचार, मूलाराधना, रत्नकरण्डकश्रावकाचार, वसुनंदिश्रावकाचार, सागारधर्मामृत व अनगारधर्मामृत मुख्य हैं। आचारांग:
समग्र जैन आचार की आधारशिला प्रथम अंगसूत्र आचाराम