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जैनाचार की भूमिका : १३ सातवां अंग तुरीयगा कहलाता है । इसमे पदार्थों का मन से कोई सम्बन्ध ही नही रहता तथा आत्मा का सत् , चित् व आनन्दरूप ब्रह्म से एकाकार हो जाता है। यह अवस्था निर्विकल्पक समाधिरूप है। ___ योगदर्शन का अष्टाग योग प्रसिद्ध हो है । प्रथम अग यम मे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह का समावेश होता है। द्वितीय अग नियम मे शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान का समावेश किया जाता है। तृतीय अंग का नाम आसन है। चतुर्थ अग प्राणायामरूप है। पांचवा अग प्रत्याहार, छठा धारणा, सातवा ध्यान व आठवा समाधि कहलाता है। निर्विकल्प समाधि आत्मविकास की अतिम अवस्था होती है जिसमे आत्मा अपने स्वाभाविक रूप मे अवस्थित हो जाती है।
कर्मपथ :
मीमासा व स्मृतियो आदि मे क्रियाकाण्ड पर अधिक भार दिया गया है जवकि सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक, वेदान्त आदि आत्मशुद्धि पर विशेष जोर देते हैं। वौद्धो के अनुसार हमारी समस्त प्रवृत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं . ज्ञात और अज्ञात । इन्हे बौद्ध परिभाषा मे विज्ञप्ति और अविज्ञप्ति कहा जाता है। जब कोई व्यक्ति परोक्ष अर्थात् अजात रूप से किसी अन्य द्वारा किसी प्रकार का पापकार्य करता है तो वह अविज्ञप्ति-कर्म करता है। जो जानबूझ कर अर्थात् ज्ञातरूप से पापक्रिया करता है वह विज्ञप्ति-कर्म करता है। यही बात शुभ प्रवृत्ति के विषय मे भी