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९६ : जैन आचार
एक प्रकार को चोरी है जिसका सम्बन्ध परिग्रह-वृत्ति तथा नविवेक से है। श्रावक चोरी का त्याग भी साधारणतया दो करण व तीन योगपूर्वक ही करता है।
अदत्तादान-विरमण व्रत के मुख्य पांच अतिचार हैं : १ स्तेनाहृत, २. तस्करप्रयोग, ३. राज्यादिविरुद्ध कर्म, ४. कूटतोल-कूटमान, ५ तत्प्रतिरूपक व्यवहार । अनानवश यह समझ कर कि चोरी करने व कराने में पाप है किन्तु चुराई हुई वस्तु लेने में क्या हर्ज है, चोरी का माल लेना स्तेनाहत अतिचार है। चोरी की वस्तु सस्ते भाव में मिला करती है जिससे लेने वाला लोभवन मौचित्यानौचित्य का विचार नही करता । श्रावक लो
इस अतिचार से बचना चाहिए । चोरी का माल खरीदने से चोरी __ को प्रोत्साहन मिलता है । श्रावक को इस प्रकार का माल
खरीद कर चोरी को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए-चोरी का निमित्त नहीं बनना चाहिए-चोरी नहीं करवानी चाहिए । चोरी करने की प्रेरणा देना, चोर को सहायता देना, तस्कर को शरण देना, शस्त्रास्त्र आदि द्वारा डाकुओ की मदद करना, लुटेरों का पक्ष लेना आदि क्रियाएं तस्करप्रयोग के अन्तर्गत हैं । प्रजा के हित के लिए बने हुए राज्य बादि के नियमो को भंग करना राज्यादिविरुद्ध कर्म है। इस अतिचार के अन्तर्गत निम्नोक्त कार्यों का समावेश होता है : अवैधानिक व्यापार करना, कर चुरांना, विना अनुमति के परराज्य की सीमा में प्रवेश करना, निषिद्ध वस्तुएं एक स्थान से दूसरे स्थान पर अथवा एक देश से दूसरे देश मे लाना-लेजाना, राज्यहित के विरुद्ध गुप्त कार्य करना,