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________________ ११६ : जैन आचार देशावकाशिक व्रत के निम्नोक्त पाँच अतिचार हैं १. पानयनप्रयोग, २. प्रेषणप्रयोग, ३. शब्दानुपात, ४. रूपानुपात, ५ पुद्गलप्रक्षेप । मर्यादित क्षेत्र से बाहर की वस्तु लाना, मंगवाना आदि प्रानयनप्रयोग है । मर्यादित क्षेत्र के बाहर वस्तु भेजना, लेजाना आदि प्रेषणप्रयोग है। किसी को निर्धारित क्षेत्र से बाहर खड़ा देख कर खाँसी आदि शब्दसंकेतों द्वारा उसे बुलाने आदि की चेष्टा करना शब्दानुपात है। सीमित क्षेत्र से बाहर रहे हुए लोगो को बुलाने आदि की चेष्टा से हाथ, मुंह, सिर आदि का इशारा करना अर्थात् रूपसकेतो का प्रयोग करना रूपानुपात है । मर्यादित क्षेत्र से बाहर रहे हए व्यक्ति को अपना अभिप्राय जताने के लिए ककड़, कागज आदि कुछ फेकना पुद्गलप्रक्षेप है। ३. पौषधोपवास-विशेष नियमपूर्वक उपवास करना अर्थात् आत्मचिन्तन के निमित्त सर्व सावधक्रिया का त्याग कर शान्तिपूर्ण स्थान से बैठ कर उपवासपूर्वक नियत समय व्यतीत करना पौषधोपवास है । इस व्रत मे उपवास का मुख्य प्रयोजन आत्मतत्त्व का पोपण होता है अतः इसे पौषधोपवास व्रत कहते हैं। आत्मपोषण के निमित्त पौषधोपवास को अंगीकार करने वाला श्रावक भौतिक प्रलोभनो से दूर रहता है, भौतिक आपत्तियो से व्याकुल अथवा विचलित भी नही होता। इस व्रत मे स्थित साधक श्रमणवत् साधनारत होता है । वह आहार के परित्याग के साथ ही साथ उपलक्षण से शरीरसत्कार अर्थात् शारीरिक शृगार, अब्रह्मचर्य अर्थात् मैथुन एवं सावध व्यापार अर्थात् हिंसक क्रिया का भी त्याग करता है।
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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