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२१२ : जैन आचार भी श्रद्धा नही है अथवा जिसका तप से दमन करना अति कठिन है उसके लिए छेद प्रायश्चित्त का विधान है।
पचेन्द्रियघात, मैथुनप्रतिसेवन आदि अपराधो के लिए मूल प्रायश्चित्त का विधान है। मूल का अर्थ है अपराधी की पूर्व प्रव्रज्या को भूलत समाप्त कर उसे पुनदोक्षित करना अर्थात् नई दीक्षा देना।
तीव्र क्रोधादि से प्ररुष्ट चित्त वाले घोर परिणामी श्रमण के लिए अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त का विधान है। अनवस्थाप्य का अर्थ है अपराधी को तुरन्त नई दीक्षान देकर अमुक प्रकार की तपस्या करने के बाद ही पुनः दीक्षित करना ।
पाराचिक प्रायश्चित्त देने का अर्थ है अपराधी को हमेशा के लिए संव से बाहर निकाल देना । तीर्थंकर, प्रवचन, आचार्य, गणधर आदि की अभिनिवेशवश पुनः- पुन. आशातना करने वाला पारांचिक प्रायश्चित्त का अधिकारी होता है। उसे श्रमणसघ से स्थायीरूप से बहिष्कृत कर दिया जाता है। किसी भी अवस्था में उसे पुनः प्रव्रज्या प्रदान नहीं की जाती।
बृहत्कल्प के चतुर्थ उद्देश मे दुष्ट एवं प्रमत्त श्रमण के लिए पारांचिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है तथा सार्मिकस्तैन्य, अन्यधार्मिकस्तैन्य एवं मुष्टिप्रहार के लिए अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त की व्यवस्था की गयी है।
निशीथ सूत्र मे चार प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान है : गुरुमासिक, लघुमासिक, गुरुचातुर्मासिक और लघुचातुर्मासिक । यहाँ गुरुमास अथवा मासगुरु का अर्थ उपवास तथा लधुमास